अपनी पुरानी डायरी के पन्नो को पलटते हुए
बीते हुए पलों से मिलना चाहती थी
एक नज़्म दिखी उसमे अधूरी सी
उस अधूरी नज़्म को मैं पूरा करना चाहती थी
एक चौथाई पन्ने पर सिमटी
कुछ जख्मी से एहसासों में लिपटी
शायद मुझे कुछ याद दिलाना चाहती थी
उस अधूरी नज़्म को मैं पूरा करना चाहती थी
मेरे अपने ही वो ज़ज़्बात जैसे गैर हो चुके थे
शब्दों की तरह अब कुछ धुंधले हो चुके थे
धुंधले से उन शब्दों को -जज्बातों को जाने क्यों पढ़ना चाहती थी
उस अधूरी नज़्म को मैं पूरा करना चाहती थी
कुछ शब्द नए जोड़े पर वो उसमे घुल न पाए
किसी पुरानी जीन्स में रफू की तरह अलग से उभर आये
अपने कल से अपने आज को जाने क्यों जोड़ना चाहती थी
उस अधूरी नज़्म को मैं पूरा करना चाहती थी
एक रोज मेरे ही दिल से निकली थी
लेकिन आज मुझसे ही कुछ अजनबी सी थी
कुछ कह कर भी कुछ छुपाना चाहती थी
शायद... हाँ शायद...
वो नज़्म अधूरी ही रहना चाहती थी
Beautiful...can relate to this as i used to write my diary and last week came across an very old diary (1997 )..some pages left half written....
ReplyDeleteBeautiful...can relate to this as i used to write my diary and last week came across an very old diary (1997 )..some pages left half written....
ReplyDelete1997! oh that's long back. Its always a pleasure to read old verses, either complete or incomplete...
Deletebeautiful lines :)
ReplyDeleteThanks Kirti :)
Deleteye adhoorapan hi mukammal karta hai hai is nazm ko khoobsurat...
ReplyDeleteShukriya Rahul ji
Deleteभावनापूर्ण अभिव्यक्ति। सुंदर
ReplyDeleteशुक्रिया...
Deleteकुछ दर्द भरी सुंदर सी कविता, दिल को छु गई ----
ReplyDeleteकुछ शब्द नए जोड़े पर वो उसमे घुल न पाए
किसी पुरानी जीन्स में रफू की तरह अलग से उभर आये
अपने कल से अपने आज को जाने क्यों जोड़ना चाहती थी
उस अधूरी नज़्म को मैं पूरा करना चाहती थी
शुक्रिया रेखा जी.
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