जब भी किसी दोस्त की कमी महसूस करती हूँ
मैं दर्पण से बातें करती हूँ
मन कहता है ये मैं नहीं, कोई और है
मेरा हमराज़ मेरा हमदर्द हैवो मुझे समझाता है की मेरे ये आंसू
मेरी ही किसी मुस्कान का क़र्ज़ है
जाने किन् ख्यालों में हूँ
खुद ही हंसाती हूँ खुद ही हंसती हूँ
मैं दर्पण से बातें करती हूँ
बस यूँ महसूस होने ही लगा था
की अब किसी और दोस्त की ज़रूरत नहीं
भरम से जाग उठा ये मन तभी, बोला
इस परछाई की कोई शक्शियत नहीं
मेरा दोस्त एक परछाई है
इस हक़ीक़त से डरती हूँ
मैं दर्पण से बातें करती हूँ
एक हवा का झोंका आया, मेरा दोस्त कहीं खो गया
रह गयी तो सिर्फ एक परछाई
इतना बाँट के भी कुछ बंट न सका
और गहरी हो गई मेरी तन्हाई
अपने अस्तित्व को फैला कर
फिर खुद ही सिमट जाती हूँ
मैं दर्पण से बातें करती हूँ
Alka , very nice but very senti...all ok at ur end?
ReplyDeleteYa all ok. Wrote it years ago. Thanks for asking though :)
DeleteVery nice keep it up
ReplyDeleteVery nice, keep it up
ReplyDeleteThank you:)
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