अपनी पुरानी डायरी के पन्नो को पलटते हुए
बीते हुए पलों से मिलना चाहती थी
एक नज़्म दिखी उसमे अधूरी सी
उस अधूरी नज़्म को मैं पूरा करना चाहती थी
एक चौथाई पन्ने पर सिमटी
कुछ जख्मी से एहसासों में लिपटी
शायद मुझे कुछ याद दिलाना चाहती थी
उस अधूरी नज़्म को मैं पूरा करना चाहती थी
मेरे अपने ही वो ज़ज़्बात जैसे गैर हो चुके थे
शब्दों की तरह अब कुछ धुंधले हो चुके थे
धुंधले से उन शब्दों को -जज्बातों को जाने क्यों पढ़ना चाहती थी
उस अधूरी नज़्म को मैं पूरा करना चाहती थी
कुछ शब्द नए जोड़े पर वो उसमे घुल न पाए
किसी पुरानी जीन्स में रफू की तरह अलग से उभर आये
अपने कल से अपने आज को जाने क्यों जोड़ना चाहती थी
उस अधूरी नज़्म को मैं पूरा करना चाहती थी
एक रोज मेरे ही दिल से निकली थी
लेकिन आज मुझसे ही कुछ अजनबी सी थी
कुछ कह कर भी कुछ छुपाना चाहती थी
शायद... हाँ शायद...
वो नज़्म अधूरी ही रहना चाहती थी