Sunday, 27 March 2016

यादों का बस्ता बहुत भारी हो गया


कुछ पल मैं लौटा दूँ वक़्त को
की यादों का बस्ता बहुत भारी हो गया.
धीरे धीरे ना जाने कब
मेरे आज पर हावी हो गया.

ज़िन्दगी की दौड़ से थक कर
कुछ पल चुराए थे छुप कर.
कुछ सुकूं सा मिला था दिल को
यादों की छाँव में रूककर.
लेकिन धीरे धीरे ये पल ना जाने कब
गुज़रे कल के हवाले हो गया.
कुछ पल मैं लौटा दूँ वक़्त को
की यादों का बस्ता बहुत भारी हो गया.

एक कदम आगे, दो पीछे चलते रहे
नए पन्नो पर पुरानी कहानी लिखते रहे.
एक नयी सुबह की चाह में
बड़ी देर तक वो पन्ने मुझसे लड़ते रहे.
शब्दों से भरा वो पन्ना
उम्मीदों से खाली हो गया.
कुछ पल मैं लौटा दूँ वक़्त को
की यादों का बस्ता बहुत भारी हो गया.

6 comments:

  1. Wah wah wah !!! Great job, Alka.

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  2. As angoori would say, "SAHI PAKDE ALKAJI".
    Bohot khub kaha...
    Hum aaj to acche se jine ke waja, beete hue kal mein jyada rehte hai.

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